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________________ १७२ जिनवाणी पार्श्वकुमारने पिताको समझाकर युद्धका नेतृत्व स्वयं अपने हाथमें ले लिया। कलिंगपति यवनने पार्श्वकुमारके बलवीर्य और पराक्रमकी बात अपने मन्त्रीसे सुनकर युद्धका विचार छोड़ दिया और अपना कुठार अपने गलेमें वांधकर पार्श्वकुमारके चरणोंमें जा गिरा और बोला : "मेरी धृष्टता क्षमा कीजिये।" पार्यकुमारने बिना युद्ध किये हो विजय प्राप्त की और फिर पिताके आग्रहसे प्रभावतीका पाणिग्रहण किया। एक दिन पार्श्वकुमार अपने महलके झरोखेमें बैठे बैठ विश्वकी लीला देख रहे थे। उस समय उन्होंने कुछ स्त्रीपुरुषोंको विविध प्रकारका नैवेद्य हाथमें लिये, उत्साहपूर्वक जल्दी जल्दी नगरके बाहर जाते हुवे देखा । उन्होंने प्रश्न किया : "इस प्रकार ये लोग कहां जाते होगे?" एक अनुचरने उत्तर दिया : " कोई तपस्वी पंचाग्निकी साधना कर रहा है। ये लोग उसका सत्कार करने जाते है।" कुतूहलवश पार्श्वकुमार भी घोडेपर सवार होकर उस टोलीके पीछे चल दिये । घोडे पर चढने, हाथीकी पीठ पर बैठकर जंगलो घूमने और जलक्रीडा करनेका उन्हें प्रथमसे ही अभ्यास था। । पार्श्वकुमारने निकट पहुंचकर देखा तो एक मृगचर्मधारी, जटाधारी तपस्वी पञ्चाग्निके मध्यमें बैठा हुवा आतापना ले रहा है। पार्श्वकुमार बहुत देर तक इस तापसके कायाक्लेशको देखते रहे। ' : तापस अपने मनमें सोचने लगा : "इतने सारे नरनारी मुझे प्रणाम करते हैं, भक्तिभावसे नैवेद्य चढाते हैं, परन्तु इस अश्वारूढ कुमारकी आंखोंमें केवल कुतूहलमात्र ही है, इसका क्या कारण होगा?" . .
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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