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________________ भगवान् पाश्र्वनाथ १६७ वाहुके अन्तःकरणमें प्रश्न उत्पन्न हुवा : "प्रतिमा तो अचेतन है। इसकी पूजासे क्या लाभ?" विपुलमति नामक एक मुनिपुंगवने सुवर्णबाहुके हृदयकी शंकाको समझ लिया। उन्होंने राजाके मनका जिस प्रकार समाधान किया वह इस युगके लिये भी अनेक प्रकारसे उपयोगी है । उन्होंने कहाः “चित्तकी शुद्धि अथवा अशुद्धिका आधार प्रतिमा है। आप स्वच्छ सफेद स्फटिककी प्रतिमाको रक्तपुप्पोसे अलंकृत करें तो वह प्रतिमा भी लाल रंगकी दिखलाई देगी । काले फूल चढाओगे तो वह काली प्रतीत होगी। प्रतिमाके पास प्राणीके मनोभाव भी इसी प्रकार परिवर्तित होते है। जिनमन्दिरमें जाकर भगवानको वीतराग आकृतिको देखनेसे चित्तमें दैराग्यभावना जागृत हुवे बिना नहीं रह सकती। और किसी विलासवती वेश्याके मन्दिर में जा पहुंचे तो वेश्याके दर्शनसे चित्तमें वासना तरंगित हुवे बिना न रहेगी। वीतराग भगवानकी मूर्तिके दर्शन करनेसे, इनकी नवाङ्गी पूजा करनेसे, इनके निर्मल गुणोंका हमें क्षणक्षणमें खयाल आता है, हमारे मनोभाव विशुद्ध होते है । ज्यों यो परिणाम विशुद्ध बनता है त्यो त्यो मुक्तिके मार्गमें आगे बढ़ा जाता है। वाह्य प्रतिमाके दर्शनसे प्रेक्षकके मनमें अनेक प्रकारके भाव जाग्रत होते है । एक साधारण उदाहरण लीजिये । मानलो, शहरमें एक असामान्य रूपयौवनसंपन्ना वेश्या रहती है। उसकी अचानक मृत्यु हो जाय । उसका शव स्मशानमें पड़ा हो। उसमें जीव नहीं है, जड़वत् शरीर पड़ा है। उसके पाससे कोई कामी पुरुष गुजरता है। उस कामी पुरुषके मनमें उस जड़ देहको देखकर किस प्रकारके विचार
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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