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________________ भगवान पार्श्वनाथ राजराजेश्वर किरणवेग एक दिन मुनिल्पमें एक पर्वतको एकांत गुफामें ध्यानमें बैठ थे। इतने ही में एक विकराल फणिधर आया और उसने बडे जोरसे फुकार मारते हुवे मुनिराजके पैरमें काट लिया। धीमे धीमे उस छिद्रसे सर्पका कातिल विष समस्त शरीरमें व्याप्त हो गया। विपञ्चालासे अंग अंगमें, रोम रोममें असह्य जलन होने लगी। वेदनाका यह हाल था कि मानों शरीर भट्टीमें जल रहा है।। इतने पर भी मुनिराजने धैर्य और शान्तिको नहीं जाने दिया और अविचलित भावसे कालदूतके आधीन हो गए। किरणवेग मुनिराजके प्राण लेनेवाला यह फणिधर पहिले कर्कट. नामक सर्प था। इस सर्पके काटनेसे ही वज्रघोषने प्राणत्याग किया था। इसके पश्चात् कर्कट मरकर पंचम नरकमें गया, जहां उसे सतरह सागरोपम आयुका भोग करते समय छेदन भेदन आदि अनेक यन्त्रणाएं सहन करनी पड़ीं। नारकीका आयु पूर्ण होने पर उसने हिमगिरिकी गुफामें फणिधरके रूपमें जन्म लिया। किरणवेगको देखते ही उसका पुराना वैर जाग उठा । इसी वैरके कारण उसने इस बार भी किरणवेग जैसे राजर्षिको जहरीले डंकसे हत्या को । मुनिवर किरणवेग वारहवें स्वर्गमें, जंबुद्रुमावर्त विमानमें देवरूपेण उत्पन्न हुवे । २२ सागरोपम आयुवाले इस देवको भी आयु पूरी होने पर देवलोकका त्याग करना पड़ा। वहांले वे फिर मनुष्यलोकमें आये। जम्बूद्वीपान्तर्गत पश्चिम महाविदेहमें शुभंकरा नामक एक महानगरी है। इसका नरपति वनवीर्य है और उसकी पटरानीका नाम लक्ष्मी
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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