SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव १४५ दशम, एकादश और द्वादश स्वर्गके देव देवियोंके शब्द-श्रवणमें ही तृप्तिलाभ करते है। १३वे से १६वे देवलोक तकके देव केवल देवांगनाओंके विचारमात्रसे ही सन्तोषलाभ करते है । १६३ के आगे, ऊपरके देवलोकोंमें कामलालसा नहीं है। मनुष्यादि जीवोंका शरीर जिस उपादानसे निर्मित है वे उपादान इस देवशरीरमें नहीं होते। देवोंमें वीर्यस्खलन और देवियोंमें गर्भधारण क्रिया नहीं होती। देव मातृकुक्षिसे उत्पन्न नहीं होते। इनका भैथुन केवल एक प्रकारका मानसिक सुखसम्भोगमात्र होता है। ___ नरकवासी जीव नारकी कहलाते है । नरक अधोलोकमें है और एकके ऊपर दूसरा स्थित होनेसे एक दूसरेके आश्रित रहते हैं। घनांबु (घनोदधि), पवन और आकाश ये तीन प्रकारके द्रव्य प्रत्येक नरकमें होते है। धनांबु आदि प्रत्येक पदार्थ २० हजार योजन तक विस्तृत होते है। नरक सात है: (१) धर्मा, (२) वंशा, (३) मेघा (सेला), (४) अंजना, (५) अरिष्टा, (६) मघवी (मघा) और (७) माधवी (माधवती)। वर्ण तथा स्वरूपभेदसे सातो नरक निम्नलिखित नामोंसे पुकारे जाते है-(१) रत्नप्रभा, (२) शर्कराप्रभा, (३) वालुकाप्रभा, (४) पंकप्रभा, (५) धूमप्रमा, (६) तमःप्रभा, (७) तमस्तमःप्रभा अथवा महातमःप्रभा। प्रथम नरकमें ३० लाख, दूसरेमें २५ लाख, तीसरेमें १५ लाख, चौथेमें १० लाख, पांचवेंमें ३ लाख, छठेमें ५ कम एक लाख और सातवेमें ५ नरकावास कुल मिलकर ८४ लाख जीवोत्पत्तिस्थान है। नारकीके जीवोंका वर्ण अत्यन्त खराव होता है। उनमें विविध
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy