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________________ जिनवाणी कहते हैं । वेदान्ती उसे अविद्यालय मानते है । जैन अदृष्टको पौद्गलिक सिद्ध करके इन सब मतोका परिहार कर देते हैं। ___जीव अथवा आत्माके विषयमें जैन क्या मानते हैं इसका मैंने संक्षेपमें वर्णन किया है। सांख्यादि मतोंके साथ जैन मत कुछ अंशोंमें मिलता है तो कुछ अंशोंमें भिन्न है। इससे इतना तो अवश्य प्रतीत होता है,कि, जैन दर्शन भारतवर्षका एक अति प्राचीन-स्मरणातीत युगका - दर्शन है। यह बात बिल्कुल मानने लायक नहीं है कि, जैन दर्शनका प्रादुर्भाव बौद्ध युगके वाढमें हुवा है, अथवा गौतमबुद्धके समयका यह एक विचारप्रवाह है। न्याय, वेदान्तादि दार्शनिक मतोके साथ यदि जैन सिद्धान्तोकी कुछ समानता प्रतीत होती हो, जैन दर्शनमें किसी प्रकारकी विशिष्टता दिखलाई देती हो तो हम सहज ही में यह अनुमान कर सकते हैं कि इतिहासके जिस विस्मृत युगमें न्यायादि मतोंका प्रचार हुवा है, उसी युगमें जैन सिद्वान्तोंका भी प्रचार हुवा होना चाहिये । और इतिहास एवं पुरातत्व यही बात सिद्ध करता है।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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