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________________ जीव' १२५ आत्मा यद्यपि सावयव और कार्य है तथापि वह अविच्छिन्न, अविभाग और नित्य भी है। ___आत्माके शरीरपरिमाणत्वके विषयमें नैयायिक कहते है कि, जीवको स्वदेहपरिमाण मानोगे तो उसे एक मूर्त पदार्थ मानना पड़ेगा। अब यदि आत्मा मूर्त पदार्थ हो तो शरीरमें उसका अनुप्रवेश असंभव हो जायगा। एक मूर्त पदार्थमें अन्य मूर्त पदार्थ किस प्रकार प्रवेश कर सकता है ? फिर तो आपको शरीरको निरात्मक ही मानना पड़ेगा। एक और बात भी है : यदि आमा देहपरिमाण हो तो वालशरीरके पश्चात् युवकशरीरके रूपमें किस प्रकार परिणमित हो सकेगा। यदि आप कहे कि आत्मा बाल-शरीर-परिमाणका त्याग करके युवक-शरीर-परिमाण ग्रहण करता है तो शरीरके समान आत्मा भी अनित्य हो जायगा । और यदि यह कहा जाय कि बालक-शरीरपरिमाणका त्याग किए बिना ही आत्मा युवा-शरीर-परिमाणमें परिणत हो जाता है तो इसे तो एक असंभव व्यापार ही कहना पड़ेगा, क्यों कि एक परिमाणका त्याग किए बिना अन्य परिमाण किस प्रकार ग्रहण किया जा सकता है ? अन्ततो गत्वा न्यायाचार्य कहते है कि, जीव तनुपरिमाण हो तो शरीरका एकाध अंश खण्डित होनेपर आत्माका भी किसी अंशमें खण्डित होना मानना पड़ेगा। जैन दार्शनिक इसका उत्तर देते है: 'मूर्त' के माने क्या ? यदि 'मूर्त का अर्थ यह किया जाय कि आत्मा सर्वपदार्थोंमें अनुप्रविष्ट नहीं है, केवल खेदह-परिमाण ही है, तो जैन सिद्धान्तको इससे विरोध न होगा; परन्तु. यदि आप मूर्त शब्दका अर्थ रूपादिमान करें तो फिर हमें उसका विरोध
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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