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________________ जिनवाणी जीव मोक्ष प्राप्त कर लेते। अविशेषणभावके कारण जीव या आत्माका बहुत्व मानना पड़ता है। ___आत्माकी विविधताके विषयमें सांख्य और जैन दर्शन एकमत होते हुवे भी वे जीवके कतृत्व और भोक्तृत्वके विषयमें भिन्न है । सांख्य मतानुसार पुरुष-आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध-मुक्त है; असंग, निस्पृह, अलिप्स और अकर्ता है । जगद्व्यापारसे उसका कोई संबन्ध नहीं है। प्रकृति ही सृष्टिकी रचना करती है, पुरुष कुछ नहीं कर सकता । वह फल भी नहीं भोगता। वह तो केवल निष्क्रिय और अभोक्ता है। जर्मन दार्शनिक कांटके कथनका भी यही अभिप्राय है। वह कहता है कि Noumenal self के साथ व्यावहारिक ज्ञानप्रवाहका कुछ संबन्ध नहीं है। सांख्य भी यही कहता है कि पुरुषका जगतके व्यापारके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। ___ सांख्यदर्शनसे हम पूछ सकते है कि, " पुरुषमें कर्तृत्व नहीं है तो फिर बन्धन और मोक्ष किसके लिये है ? आत्मा सुख दुःख न मोगता हो तो यह समस्त व्यवहार किस प्रकार चल सकता है ?" इस प्रकार न्यायदर्शन सांख्यदर्शनकी अच्छी तरह खबर लेता है। न्यायदर्शन आत्मामें सुख, प्रयत्नादि गुणोंका आरोप करता है। जीवके एकान्त असंगत्वके विषयमें जैन दर्शन सांख्यका प्रतिवाद करता है और न्यायदर्शनके साथ सहमत है। जैन दर्शन सांख्यमतकी सुन्दर समीक्षा करता है। वह कहता है कि-पुरुष सर्वथा अकर्ता हो तो उसे किसी प्रकारका अनुभव न होवे । परन्तु "मैं सुनता हूं, मै सूंपता हूं" आदि प्रतीति तो हम सबको
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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