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________________ १० करना यह मेरे लिये एक रस और शौखका काम वन गया था । सौभाग्यसे बंगला में प्रकाशित होती ' जिनवाणी' पत्रिका मेरे देखने में आई । उसके चार-पांच अंक किसी तरह प्राप्त किये । मान्य श्री 1 हरिसत्य बाबूके लेखोंने मुझे मुग्ध किया। फिर तो 'जिनवाणी' के हो सके उतने अंक प्राप्त करनेका यत्न किया । बंगालमें अधिक परिचय एवं पहिचान न होनेके कारण अधिक अंक तो प्राप्त न हुए, तो भी जितने प्राप्त हुए उनके लेखोंका अनुवाद करके उन्हें ' जिनवाणी ' नामक ग्रन्थरूपसे प्रकाशित किये। गुजराती 'जिनवाणी ' का अच्छा सत्कार हुआ जानकर मुझे खुशी हुई । आज गुजराती ' जिनवाणी'का हिन्दी संस्करण प्रकट हो रहा है, और उसमें मु. श्री. दर्शनविजयजी, व ज्ञानविजयजी (त्रिपुटी) की प्रेरणा मुख्य कारण है, यह मेरे लिये सौभाग्यकी बात है । हिन्दी अनुवादको मैं सरसरी तौर पर देख गयाहूं | हिन्दी अनुवादका सम्पादन बहुत सुन्दर हुआ है यह बात पुस्तकके देखते ही कह सकते है । t यदि मेरा स्वास्थ्य ठीक होता तो ऐसे सुन्दर रूपमें प्रकाशित होते ग्रन्थमें कुछ और नये अनुवादोको दाखिल करके इसे अधिक समृद्ध करनेकी कोशिश करता । श्री हरिसत्य बाबूके अतिरिक्त श्री महामहोपाध्याय विधुशेखर बाबू एवं श्री सतीश बाबूके कितनेक लेखोंको अनुवादित करके दिया जाता तो उन लेखोंकी शैली और उनमेंका मसाला पाठकगणके लिये आदरणीय बन जाता। आज न सही, दो दिनके पश्चात् भी बंगला साक्षरोंके कितनेक लेख ग्रन्थरूपसे प्रकट करने योग्य है । भावनगर, ता. ३-३-५२ - सुशील
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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