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________________ जैन विज्ञान अलंकारकी अपेक्षासे, पर-क्षेत्र अर्थात् अन्य किसी शहरकी (गांधारकी) अपेक्षासे और पर-कालकी अर्थात् अन्य किसी ऋतु (शीतन्तु)को अपेक्षासे यह घट नहीं है, यह भी कह सकते है। (३) स्यादस्ति नास्ति च घटः अर्थात् एक अपेक्षासे घट है और अन्य अपेक्षासे घट नहीं है। स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्रकी अपेक्षासे वह घट है और पर-द्रव्य, पर-क्षेत्रकी अपेक्षासे वह घट नहीं है। यह वात ऊपर कही जा चुकी है। (४) स्यादवक्तव्यः घटः अर्थात् एक अपेक्षासे घट अवक्तव्य है। एक ही समयमें हमें ऐसा प्रतीत हो कि घट है और घट नहीं है तो इसका अर्थ यह हुवा कि घट अवक्तव्य हो गया, क्यों कि भाषामें कोई भी शब्द ऐसा नहीं है, जो एक ही समयमें अस्तित्व और नास्तित्वको प्रकट कर सके। तीसरे भेदमें हम जो घटका अस्तित्व देख आये है उसका आशय यह नहीं है कि जिस क्षणमें हमें घटका अस्तित्व प्रतीत होता है उसी क्षणमें उसका नास्तित्व प्रतीत होता है। (५) स्यादस्ति च अवक्तव्यः घटः अर्थात् एक अपेक्षासे घट है और वह भी अवक्तव्य है। प्रथम और चतुर्थ भेदको एक साथ मिलानेसे यह भेद समझमें आ सकेगा। (६) स्यानास्ति च अवक्तव्या घटा अर्थात् एक अपेक्षासे घट नहीं है और वह भी अवक्तव्य है। इस नयका आधार दूसरे और चौये भेदका संकलन है। (७) स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यः घट: अर्थात् एक
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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