SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनवाणी अनुभूतिको अचक्षुदर्शन कहते हैं। अवधि और केवल असाधारण दर्शन है । स्थूल इन्द्रियोंसे अगम्य विषयकी अवधिवाली अनुभूतिको अवधिदर्शन कहते | Theosophist संप्रदाय जिसे Clairvoyance कहते है, कुछ अंशोंमें अवधिदर्शन उसीके समान है । विश्वकी समस्त वस्तुओंके अपरोक्ष अनुभवका नाम केवलदर्शन है। दर्शनके पश्चात् ज्ञानके उदयको उपयोगका दूसरा मेद कहे तो कह सकते है। ज्ञान प्रथमतः दो प्रकारका है : एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष । मति, श्रुत आदि अष्टविध ज्ञान इन दो प्रकारके ज्ञानके अन्तर्गत आ जाता है। उनमें 'कुमति ' मतिज्ञानका, 'कुश्रुत' श्रुतज्ञानका और 'विभंग' अवधिज्ञानका आभास अर्थात् Fallacious forms मात्र होता है। मति दर्शनके पश्चात् इन्द्रियज्ञानकी अपेक्षासे जिसकी उत्पत्ति होती है, उसका नाम मतिज्ञान है। मतिज्ञानके तीन भेद हैं : उपलब्धि, भावना और उपयोग । इस तीन प्रकारके मतिज्ञानको जैन दार्शनिक बहुधा पांच भेदोंमें विभक्त करते है -मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता और आमिनिबोध । (शुद्ध) मति दर्शनके पश्चात् तुरन्त ही जो वृत्ति उत्पन्न होती है उसे उपलब्धि अथवा शुद्ध मतिज्ञान कहा जाता है। पाश्चात्य मनोविज्ञान इसे Sence instuition अथवा Perception कहता है। जैन दार्शनिक
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy