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________________ ७८ जिनवाणी है उस चक्रवर्ति-सम्राट् भरतको ब्राह्मण संप्रदाय और जैन संप्रदाय दोनों ही भक्तिभावसे वन्दन करते है । जिस रघुपतिके चरित्रचित्रणसे ब्राह्मण साहित्य जगमगा रहा है उस रामचन्द्रको भी जैन समाजने अपने अन्दर स्वीकार किया है। द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण और उनके ज्येष्ठ बन्धुको भी जैन साहित्यमें अच्छा स्थान मिला है। उनके एक आत्मीय-श्री नेमिनाथको तो जैन धर्मके २२ वें तीर्थंकर होनेका सौभाग्य प्राप्त हुवा है । गौतमबुद्धके जन्मसे २५० वर्ष पहिले जैन धर्मके २३ वे तीर्थकर भगवान श्री पार्श्वनाथका शासन वर्तमान था । इन सब बातोंका ऐतिहासिक मूल्य चाहे जो हो, परन्तु यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि भगवान् महावीरस्वामीके आविर्भावसे पहिले भी भारतवर्ष में जैन धर्मका प्रभाव था। बौद्ध धर्मके प्राचीनातिप्राचीन ग्रन्थोंमें जो " नायपुत्त " और "निग्गंथ" के नाम मिलते है वे बुद्ध भगवानके पहिलेके थे इसमें तनिक भी सन्देहको स्थान नहीं है । जैन धर्म बौद्ध धर्मकी शाखा तो है ही नहीं, इतना ही नहीं वह बौद्ध धर्मसे अत्यन्त प्राचीन है। अत एव हम यहां पुनः कहना चाहते हैं कि, भारतीय दर्शन, भारतीय सभ्यता और भारतीय संस्कृतिके इतिहासमें जैन धर्मको एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ___अत्यन्त प्राचीन कालकी अध स्पष्ट अथवा अस्पष्ट बातोंको तो जाने दीजिये। इतिहासके प्रभातकालसे जैन महापुरुषोंका गौरव भगवान् अंशुमालीकी किरणोंके समान पृथ्वी पर देदीप्यमान होतालगता है। इस वातके प्रमाण मिलते है कि भारतका चक्रवर्ति-सम्राट मौर्यकलमुकुटमणि चन्द्रगुप्त जैन धर्मका अनुरागी था। प्राचीनसे प्राचीन वैया
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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