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________________ ७४ .. जिनवाणी भावनिमित्तो बन्यो भावो रदिरागदोसमोदजुदो। -पचास्तिकाय। वन्धमें भाव निमित्त है और रति, राग, द्वेष, मोहयुक्त भाव बन्धके कारण है। ____ राग द्वेषादि भावप्रत्ययमेंसे मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग उत्पन्न होते हैं। अशुद्ध निश्चयनयके अनुसार आत्माभावप्रत्यय अथवा मिथ्यादर्शनााद पंचविध भावकमका कर्ता है। इस प्रकार अशुद्ध निश्चयनयके अनुसार भी जीव कर्मपुद्गलका कर्ता नहीं है। शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनयके अनुसार आत्मा कर्मपुद्गलका कर्ता न होने पर भी व्यवहारनयके अनुसार जीव द्रव्यबंध अथवा द्रव्यकर्मका कर्ता है। मिथ्यात्वादि भावकर्मके उदयते आत्मा ऐसी स्थितिमें आ जाता है कि जिससे आत्मामें द्रव्यकर्भ या कर्मपुद्गलका आश्रव होता है और इससे जीव बंध बांधता है। बंधके कारण आत्मा पुद्गलकर्मके फलस्वरूप सुख दुःखादिका भोग करता है। उपरोक्त विवेचनसे पता चलेगा कि शुद्ध निश्चयनयको वात जाने दें तो भी अशुद्ध निश्चयनयकी दृष्टिसे आत्मा पुद्गल-कर्मीका कर्ता नहीं है । यह चैतन्य स्वरूप है अत एव कर्मका उपादान कारण भी नहीं हो सकता और न है। भावकर्मके कारण आत्मामें कर्मवर्गणाका आश्रव होता है इस लिये आत्माको सीधे तौर पर--साक्षात संबन्धसे-- आश्रवका निमित्तकारणरूप भी नहीं माना जा सकता। आत्मा मात्र अपने भावोंका कर्ता है। निश्चयनयका यही सिद्धान्त है । इतना होते
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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