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________________ जैन दर्शनमें कर्मवाद ६९ मुखी और सज्जन दुःखी दिखलाई दें तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि कर्मफल मिलता ही नहीं। एक जैनाचार्यने कहा है - "या हिंसावतोऽपि समृद्धिः, अर्हत्पूजावतोऽपि दारिद्र्याप्तिः साक्रमेण प्रागुपात्तस्य पापानुबन्धिनः पुण्यस्य, पुण्यानुबन्धिनः पापस्य च फलम् । तत् क्रियोपान्तं तु कर्म जन्मान्तरे फलिप्यति इति नात्र नियतकार्यकारणभावव्यभिचारः ॥ हिंसक मनुष्यकी समृद्धि और अर्हत्पूजापरायण पुरुषकी दरिद्रताका कारण क्रमशः पूर्वजन्मकृत पापानुबन्धी पुण्यकर्म और पुण्यानुबन्धी पापकर्म है। हिंसा और अर्हत्पूजा, ये कर्म कभी निष्फल नहीं जा सकते। इन कर्मों का फल तो मिलता ही है, चाहे जन्मान्तरमें हो क्यों न मिले। कर्म और कर्मफलमें कार्यकारणभाव सम्वन्धी किसी प्रकारका व्यमिचार नहीं है। जैन मतानुसार प्राणीमात्रको कर्मफल तो भोगना ही पड़ता है । फलोत्पत्ति के लिये कर्मफलनियंता ईश्वरका बीचमें कोई स्थान नहीं है । उपरोक्त कथनानुसार बाह्य दृष्टिसे कर्मके स्वरूप और व्यापारके विषयमें जैन मत और बौद्ध दर्शनमें अधिक मेद प्रतीत नहीं होता, परन्तु वास्तवमें इन दोनोंमें मौलिक भेद अवश्य है । वाक्योंमें जितना साम्य है उतना अथोंमें नहीं है। बौद्ध मतानुसार कर्म निःस्वभाव नियम है। जैन मतानुसार कर्म संसारी जीवके बन्धनका कारण है। जीवसे वह कर्म पृथक् है और वह एक प्रकारका द्रव्य है । इस कर्म-द्रव्यके आसवके कारण, अनादिकालीन अशुद्धता का जीव बन्धनग्रस्त रहता है। जैन दर्शन
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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