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________________ जिनवाणी परन्तु वृक्षकी उत्पत्ति केवल वीजकी ही अपेक्षा नहीं रखती, उसके लिये हवा, पानी और प्रकाशादिकी आवश्यकता होती है। इसी प्रकार कर्मफलके लिये भी ईश्वरकी आवश्यकता होती है। __न्याय दर्शनका मुख्य अभिप्राय यह है कि, ईश्वर कर्मसे पृथक् है, परन्तु कर्मके साथ फलकी योजना कर देता है। कितने ही दार्शनिक यह बात नहीं स्वीकार करते कि ईश्वर इन झगडोमें पड़ता है। प्राचीन न्यायमें, कर्म और कर्मफलवादकी युक्ति पर ही ईश्वरका अस्तित्व अवलम्बित है। नवीन नैयायिकोंको इस युक्ति पर विशेष आस्था नहीं है । कर्मके साथ फलका सम्बन्ध स्थापित करनेके लिये ईश्वरका स्वीकार करनेकी 'अपेक्षा तो फलको पूर्णतः कर्माधीन मानना- अर्थात् यह स्वीकार करना कि कर्म स्वयं ही अपना फल उत्पन्न करता है, अधिक उचित है । बौद्ध दार्शनिकोका यही मत है। अन्य दर्शनकारोंके समान बौद्ध दर्शन भी स्वीकार करता है कि, कर्मके कारण ही यह संसार-प्रवाह प्रवाहित है। परन्तु गौतम और बुद्धके कर्ममें थोड़ा अन्तर है । वौद्रोंका कर्म क्या है, यह समझनेके लिये प्रथम संसारका स्वरूप समझ लेना चाहिये। वौद्ध मतानुसार संसार एक अनादि, अनन्त और निःस्वभाव धाराप्रवाह है। बुद्धदेव एक स्थान पर कहते हैं--- • "अज्ञानसे संस्कार और संस्कारसे विज्ञानका जन्म होता है । विज्ञानसे नाम अथवा भौतिक देह, नामसे षट्क्षेत्र, पट्क्षेत्रसे इन्द्रियां अथवा विषय, और विषय अथवा इन्द्रिय-संस्पर्शसे वेदना पैदा होती
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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