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________________ २८ जिनहर्प-ग्रन्थावली प्रभु दरसण मन ऊलसेरे, ज्यु केकी धनगाज । अउर सकल में परिहरे,मेरइ एक जीवन सुकाज ॥१प्या॥ प्रीतम आया पाहुणा रे, मो दिल मंदिर आज । भगति करुवहुं तेरीयां,अब छोरी सकल भइ लाजारप्या।। हिलि मिलि सुख दुखकी कहुँ रे, साहिब धइ सुखसाज । अंतरजामी सोलमउ, तासुप्रीति करू जसराज ॥३प्या।। कुन्थुनाथ-गीतम् राग-सोरठ. ग्यानी विणि किणि आगई कहीयइ, मनकी मनमें जाणी रहीये हो ग्या.। भूडी लागइ जण जण आगइ कहतां कोई न वेदन भागइ हो ॥१ग्या.॥ संगतइं अपणउ भरम गमावइ, साजन परजन काम न आवई हो ।ग्या.। दरजन होइ सु करिहइ हास. जाणी पर्या मुहुँ मांग्या पास हो ॥३ग्या.॥ ताथइ मुष्टि भली मन जाणी, धरि के धीर रहावर पाणी हो ।ग्या.। कहइ जिनहरप कहइ जो प्राणी, कुंथु जिणंद आगइ कहि वाणी हो ॥३ग्या।।।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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