SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० जिनहर्ष - प्रन्थावली उर सकल तजि कथा विराणी, निसिकरि प्रभुजी की कहाणी ॥। १ स्वा. ॥ भव वन सघन अनि प्रजलाणी, मिथ्यारज व्रज पवन उडाणी || स्वा. || जइसड़ तिल पीलण कु घाणी, तैस करम पीलण प्रभुवाणी || २स्वा. || क्रोध दवानल पावस पाणी, उज्जल निरमल गुणमणि खाणी ।। स्वा. || प्रभु जिन हरष भगति मन आणी, साहिब उ अपणी नीसाणी || ३ स्वा. || संभवनाथ - गीतम् राग-गौडी व मोही प्रभु अपणउ पद दीजड़ । करुणा सागर करुणा करि कह, निज भगतन की अरज सुणीजइ ॥ १८. ॥ तुम हउ नाथ अनाथ के पीहर, पणे जन भव त तारी जइ । तुम साहिब मई फिरु उदासी, तर प्रभु की प्रभुता क्या कीजड़ || २ || तुम हउ चतुर चतुर गति के दुप,
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy