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________________ चौवीशी तू सब जा अन्तर गति की, मेरे मन में जों है । पर उपगारी साहिब समवरि, कहै जिनहरख न कोहै ॥ ३५ ॥ श्री सुपार्श्व - जिन - स्तवन राग-केदारी दोह कर जोरि रज करु अरिहंत । श्रागम वचने न चल्यो जे है, तरिहुं क्युं भगवंत || १ दो ॥ धरम कौ मरम न पायौ इतना, दिन ति भमही भमंत । दुख पायौ प्रभु चरणै आयो, व तारो गुणवंत || २दो॥ सांमि सुपास महिर करि मुझ सुं, तुम हौ चतुर अनंत | कहै जिनहरख भवो भव संचित, के दारुण दुःख जंत ||३दो. ॥ श्री चन्द्रप्रभु - जिन - स्तवन राग-नट्टी देखेरी चन्द्रप्रभु मैं चंद समान । 'जा तन की छवि शीतल अनुपम, ५
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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