SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 561
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'सम्यक्त्व सत्तरी ४६१ सारावइ ब्राह्मण कन्हां, पूरवज तणा सराध । ' तेडइ समली कागड़ा, देखउ एह उपाधि ॥८मा। तीरथ करे गोदावरी, गंगा गया प्रयाग । न्हाया अणगल नीरस, धरम तणौ नही लाग भ।। इत्यादिक करणी करे, परभव सुख नइ रे काज । कहइ जिनहरख मिले नहीं, एहथी शिवपुर राज ॥१०भा . ढाल-रे जाया तुझविणिघडी रे छः मास एहनी ॥ धरम खरउ जिनवर तणउ जी, सिव सुख नउ दातार । श्री जिनराज प्रकासीयउजी, जेहना च्यारि प्रकार ॥१॥ भविकजन ज्ञान विचारी रे जोइ। दुर्गति पड़ता जीवने जी, धारइ ते धर्म होइ ॥२भा। पंच महाव्रत साधुना जी, दस विधि धरम विचार । हितकारी जिनवर कह्या जी, श्रावक ना व्रत वार ॥३भा पंचंबर च्यारे विगइ जी, विप सहु माटी हीम । रात्रीभोजन ने कराजी, बहु वीजा नउ नीमि ॥४भ।। घोलवड़ा वली रींगणाजी, अनंतकाय बत्रीश । अणजाण्या फल फूलड़ा जी, संधाणा निसि दीस ॥५भ। चलित अन्न वासी काउ जी, तुच्छ सहु फल दक्ष । धरमी नर खाये नहीं जी, ए'बावीस अभक्ष ॥६भ। न करइ निधंधस पणइ जी, घर ना पिणि आरंभ । जीवतणी जयणा करे जी, न पीये अणगल "अंभ ॥भ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy