________________
. सम्यक्त्व सत्तरी , १८५ फिरि फिरि जे अवतार ल्ये, देखउ कर्म नी टेवो ॥१२साँ।। स्वामी सोहइ जेहवउ, तेहवउ परिवारो। इम जाणी ते परिहरउ, जिनहरष विचारो ॥१३साँ।।
. . ' || ढाल-ऊधवने कहियो एहनी ॥ जगनायक जिनराज ने, दाखवीये देव । मुंकाणा जे कर्मथी, सारे सुरपति सेव ॥१ज।। 'क्रोध मान माया नहीं, नहीं लोभ अज्ञान ।
रति अरति वेवइ नही, छांड्या मद थान ॥रज। ' निद्रा सोग चोरी नही, नही बयण अलीक । मच्छर भय वध प्राण नउ, न करइ तहतीक ॥३ज।। प्रेम क्रीड़ा न करे वली, नही नारी प्रसंग। . हास्यादिक अढार ए, नही जेहने अंग ॥४जा। पदमासण पूरी करी, बइठा अरिहंत । सीतल लोयण,जेहना, नाशाग्र रहंत ॥ज।। जिन मुद्रा जिनराजनी, दीठां परम उलास । ' समकित थाये निर्मलु, दीपइ ज्ञान उलास ॥६जा। गति आगति सह जीवनी. देखे लोकालोक। मन पर्याय सन्नी तणा, केवलज्ञान विलोक ॥७ज। मूरति श्री जिनराज नी, समता भंडार । सीतल नयन सुहामणा, नहीं वांक लिगार ॥८ज। हसत वदन हरपे हीयउ, देखी श्री जिनराय।