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________________ ४७६ जिनहर्य ग्रंथावली जिहां जईसं तहां वली परणिसं, नाग्निी नहीं कोई खोट । सुगुणां भणी साजन घणा, भमरा ने नहीं कमलनु नोट ।।८प।। तं करे प्रिउ वीजी प्रिया, हुं अवर न करकंत । · हुं सती तूं विभिचारियउ, तुझ मुझ में बहुअंतर दीसंत ॥६पा।। रोवती रडती मंकिनइ, तु चालीयउ परदेश । आधार कुण मुझ तुझ बिना, किणी आगे रे सुख दुख कहेसि ॥१०पा। पतिव्रता पति चिणि नचि रहे, मति विरह न खमें तेह। . पति विना वीजा किणि ही स, सुकुलीणीरे करइ नहीं नेह ।।१।। तेडी न जायइ मुझ भणी, किम रहुं हुं रे अनाथ । जिनहरख पायक परजली, पिणि न रही रे जातां निज नाथ ॥१२॥ .. इति काया जीव स्वाध्याय बारह मास गर्भित जीव प्रबोध ___ ढाल-तुगिया गिरि सिखर मोहे -एह्नी चेतर तूं चेत प्राणी, म पड़ि माया जाल रे । कारिमी ए रची बाजी, रातिनउ जंजाल रे ॥१चे।। ताहरी वयसाख रूड़ी, लोक मइ जस वाम रे। अथिर परिहरि कनक कार्मिणि, जिम लहे जसवास रे ।।२।। भारो खमा जेठ गरूया, जे खमइ कुवचन्न रे। रीस रोस न करे किणिसं, सदा मन्न प्रसन्न रे ॥३च।।। विषय आसा ढल सरीखी , नहीं कोइ सवाद रे। रि तजि भजि सील समता, जिम न हुइ विपवाद रे ॥४॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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