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________________ : ४७२ जिनहर्ष ग्रंथावली मूंझ्यउ माया जाल, ते वेदन तुझ वीसरी || सु || रसणी भोग रसाल, मगन थयउ तेहमां फिरी ||५|| तुझ केड़ई यस धाड़ि जोइ फिरह छड़ जीवड़ा || || तेहने पाड़ि पछाड़ि, नहीं तउ खाइसि बहुदड़ा || ६सु॥ श्री जिन धर्म सभारि, चउंप करी चोखइ चित्तड़ || || अचचन हियडे धारि, जउ भव थी छूटण मतइ ॥ ७ ॥ मात पिता परिवार, ए सगला छ कारिमा || || काया असुचि भंडार, आभरणे तुं भारीमां ॥ ८ ॥ नावे कोई साथि, साथि कमाई आपणी || || ऊभी मेल्हिसि आथि, कुण धणियाणी कुण धणी ॥ सु || पाम्यंउ अवसर सार, पाम्या योग अमोलड़ा || || सफल करउ अवतार, सुणि जिनहरख ना बोलडा ॥ १० ॥ जीव काया सज्झाय ढाल - वहिनी रहि न सकी तिसइजी - एहनी काया कामिणि चीनवे जी, सुणि मोरा आतम राम | तूं परदेसी प्राहुण जी, न रहे एकणि ठाम ॥१॥ मोरा प्रीतम चीनतडी अवधारि, मुझ अवला ने परिहरउ जी, अवगुण किस विचारि ॥ २मो ॥ हूँ राती तुझ से रहुँजी, हॅू माती तुझ मोह । तुझ मुझ संगति जनम नी जी, आपउ कांई विछोह || ३मो ||
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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