SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 539
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जीव प्रबोध स्वाध्याय ४६ माया ने वसि जे पड्यारे, ते तउ थई गया अन्धरे। चोलाच्या वाले नहीं रे, केहनइ नमावई नहीं कंधरे ॥२मा॥ मद माता ताता रहे रे, कांई कर अनेक आरम्भ रे। माया ने कारणि केतवे रे, कांई कूड़ कपट छल दंभ रे ॥३मा।। महल चिणावे मोटा मालिया रे, वइसाडे द्रव्यनी का ड़ि रे। दीन दुखी देखी करी रे, महिर न आवे मोटी खोड़ि रे ॥४मा।।. माया छै एह असासती रे, जेहवी तरुअर छांह रे। . ए माया महा पापणी रे, काई सिर काटइ देइ वाह रे ॥५मा।। माया नी संगति थकी रे, कांई घणा विगूता लोक रे। कहे जिनहरख माया तजइ रे, तेहने चरणे माहरी धेोक रे॥६मा।। ' 'श्रा जीव प्रबोध स्वाध्याय ढाल-ते मुझ मिच्छामि दुक्कड, एहनी सुणिरे चंचल जीवंडा, मन समता आणि । पंच प्रमाद निवारिये, दुरगतिनी खाणि ॥१सु॥ च्यारि कपाय चतुर्गणा, वली नव नोकपाय । परिहरिये पचवीस ए, अविचल सुख थाय ॥२॥ राग द्वेष नवि कीजिये, कीजै उपगार । जीवदया नित पालीये, गणीयइ नवकार ॥३सु॥ दान सुपाने दीजिये, आणी ऊलट भाव । श्री जिनधर्म आराधिये, भवसायर नाव ॥४॥ विषय म राचिसि बापड़ा, थास्ये सुखनी हाणि । हियडे सूधी धारिजें, जिनहरखनी वाणिं ॥५॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy