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________________ ४६४ जिनहर्प प्रन्थावली प्रात थयुरे पउलि न उघडेरे, पडहउ फेराव्यउ रायई टेवरे ॥१०॥ आव्यू सुभद्रा केरे वारणरे, पडहउ निवार्यु सतीय तामरे । राजा परजारे सहु कोआवीया रे, आवी सुभद्रा कुआ टामरे ॥११॥ काच रे तातण बांधी चालणीरे, कूआथी कान्य निर्मल नीर रे। पोलि उघडी तीने छांटिनेरे, जस थयउ निर्मल खीर रे॥१२सी।। मुझ सारीखी चली जे हुवेरे, तेह उघाडइ चउथी पालि रे । कलङ्कउताएं जिनशासनतणउरे, निर्मल कचणवानी सोलरं ॥१३॥ घणइ रे महोच्छव मंदिर आवीयारे, सासू सुसग ना टाल्या रोसरे। श्री जिन धरम पमाडीयुरे, टाल्यउ टोल्यउ मिथ्यात दोसरे ॥१४॥ सासू कहे र बहुअर माहरउ रे, समिज पनोती तुं अपराध रे । अम्हेर अज्ञान पणे घणी रे, तुझ ने उपजावी छइ आवाधर ॥१॥ पुरनो वासी समकित वासीयारे, टाल्यू टाल्यु नगर नउ दाहरे। कहे जिनहरख सती तणारे, गुण गातांथायइ उच्छाह रे ॥१६॥सी नवग्रह गर्भित मंदोदरी वाक्य स्वाध्याय ढाल॥ कृपानाथ मुझ वीनती अवधारि॥एहनी जिणि आ दी तम्ह सीखडी जी, राम घरणि घरि आणि । मित्र म जाणे तेहनइ जी, दोपी तेह पिछाणि ॥१॥ मोरा प्रीतम सांभलि मुझ अरदास । कर जोडी चरणे नमीजी, कहे. मदोदरि भास ॥रमो॥ सोम सरल चितना धणी जी, परिहरि रुघपति नारि। .
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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