SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 524
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५४ लिनहर्ष ग्रंथावली बाडव देखी बोलिया, मानी मतवाला रे। किहां आवइ रे दैत्य तुं, नीच जाति चंडाला रे ||५ह!! सुर आवी तनु संक्रम्यउ, बोलइ मधुरी वाणी रे । भोजन अरथइ आवायउ, आपउ पुन्य जाणी रे ॥६ह।। अन्न घणु छइ तुम घरे, मुझ पात्र ने पोसउ रे । एहवउ सुपात्र वली तुम्है, लहीस्यु किहां चोखउ रे ॥हा। पात्र जाणुं ब्राह्मण कहइ, ब्रह्म सास्त्र ना पाठी रे । नित्य घटकर्म समाचरइ, करणी नहीं माठी रे ||८|| आश्रव सेवे ज सदा, क्रोधादिक भरीया रे। तेह कुपात्र ब्राह्मण कह्या, संसार न तिरिया रे ॥६ह।। पाठक भाख एहने, मारी ने काढउ रे । छात्र द्रउड्या लेई चावखा, सुर कोप्यं गाटर रे ॥१०ह।। रूधिर धार मुख नाखता, पड्या थईय अचेतो रे । मद्रा राय सुता कहइ. तुम कुल एकेतो र ॥११हा। एहनी सुर सेवा करह, मुझ नइ इणि छोडिर। जउ जाणउ छउ जीवीये, सेव कर जोडी र ॥१२ह।। सगला विन मिली करी, कहे स्वामी तारउ रे।' तुम थी रहोये जीवता, प्रभु क्रोध निवारउ रे ॥१३॥ क्रोध नही अमने कदी, जक्ष सेवा सारङ् रे। एह कुमर तुमचा हण्या, वयावच संभारइ रे ॥१४॥ तउ प्रभु ल्यउ भिक्षा तुम्हे, परघल अन्न आपइ रे ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy