SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 521
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ hy चिलातीपुत्र स्वाध्याय ४५१ इम कहिने ऊडी गयउ, त्रिपदी नउ अरथ विचारइ रे।। उपसम तउ मुझ मां नही, हुँतउ भरीयउ क्रोध अपारे रे॥१६॥ नही विवेक मुझ मां रती, आस्ये मस्तक स्यइ कामे रे। " संवर आण्यउ,आतमा, राख्या निज योग सुठामइ रे ॥१७।। मुनि चरणे काउसग राउ, कायानी ममता मूंकी रे।। ध्यान धरे त्रिपदी तणउ, बीजी सहु भावठि चूकी रे ॥१८॥आ।। । ढाल (४)। " भाव चारित्र आव्यउ उदइ जी, निंदइ पातक कर्म । _ पाप कीया ते प्राणीया जी,जेह थी दुर्गति भर्म ॥१६॥ सुविचारी रे साधु, तोरूं अधिक खिमा गुण एह । गुणवंता रे मुनिवर, धर्यउ समता सं नेह ॥ महिमावंत मुनिवर, परिसह सह्यउ निज देह । बलवंतारे साधु तोरा चरण तणी हुँ खेह ॥२०॥सु।। साधू चिलातीपुत्र नउ जी, लोही खरड्यु-शरीर । आवी तेहनी वासना जी, कीडी छंछोल्यु धीर ।।२१।। वजमुखी अति आकरी जी, पइठी कोन मझारि । आंखि 'माहे ते नीसरी जी, कीधलां छिद्र अपार ॥२२सु।। पइसी पइसी नीकली जी, वींध्यउ सयल शरीर । काया कीधी चालिणी जी, पिणि न डिग्यउ वडवीर ॥२३सु॥ राति अढी वेदन सही जी, निश्चल थइ मुनिराय। सूरतणी परि झूझीयउ जी, पाछा न धर्या पाय ॥२४सु।।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy