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________________ ३७२ जिन ग्रन्थावली. काय वलि करसी वाद, देखि दिल भीतर दज्झे । पिण मेल्हु नहीं परति, हिवै वादी हारविसुं । मो आगे कुण मात्र, गहमातो गारव सुं । अरिहंत सन्मुख ईख नैं, बलि करि जाय न बोलणो । जिनहरख अजे बल अटकलु, जगपति रो जांणपणो ||१४|| आछे एक संदेह, मूलगो मो मन माहै । दीठा तीन दकार, वेद समरति अवगाहे । न पडे तास निरत्त, अरथ रहीयो मो आगे । जाणुं तोहिज जाण, भरम जो मन से भागे । कहि अरथ निसंकित मुझ करें, गुरु करि तो मानं गिं । जिनहर्ष विन्हे कर जोडिने, भगति करें कीरति भणुं ॥ १५ ॥ अन्तरजामी आप कथन विण पूछयां कहियो । तो हॅती रहियो । ओहीज छौ इणरो । छोड़ वे हिचेरो । वेद दकार विचार, रहस दान दया दम देह, अरथ ए तीने आदरो, हठ अन्धार मिट्यो अभिमान चो, माण मोडि मद छोड़िने । जिनहरख चरण जगदीस रा, नमीयो वेकर जोडिनै ॥१६॥ - नमो नमो जग नाथ, नमो निरलेप निरंजण | नमो नमो निकलंक, नमो भावठि भय भंजण | नमो ज्ञान गुण गेह, नमो कुमति जड़ कापण । नमो अनड़ उत्थपण, नमो थिर मारग थापण ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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