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________________ ३५० श्री जिनह ग्रन्थावली अइसउ अउर न कोई दाता, सवही कूं हितकारी ताके चरण सरण कर रहीयह, न भजड़ दुरगतिनारि ॥ ज०॥ परम सनेही परदुख भंजन, रंजन मन सुविचारी । मीत सोऊ जिनहरख करीज, शिव सुख कउ उपगारी ||३०|| (२१) प्रभु वीनति राग- श्राशावरी अवतउ अपणइ वास वसाउ, कहा प्रभु बहुत कहावउ | अ० चउरासी लख मांहि वस्युं है, बसि बसि छोरे वासा । ऊंचे नीचे महल वणाए, देखे बहुत तमासा ||१०|| दुसमण सो तउ मीत किए मई, मीत शत्रु करि जाणं । तउ सुख कसई होड़ गुसाँई, आपा पर न पिछाणे ॥ २० ॥ चोर चुगल धन लूट लीयर सब, किणि सुं करूं पुकारा । ' बोस कुवास छुराड़ कहत हुँ, इतना करि उपगारा || ३अ ० || दुख पायउ आयु तुम्ह सरणड़, ज्युं जाणउ त्युं कीजो | कहइ जिनहरख निरंजन साहिब, मो मागुं सो दोजो ||४०|| (२२) जिनेन्द्र प्रीति प्रेरणा राग-रामगिरी मन रे प्रीति जिणंद स कीजइ । अउर सुं प्रोति कीयहं दुख पईयह, ताथइ दूरि रहीजइ ॥ १० ॥ करम भरम सब दूरि विडारह, जनम मरण दुख छीजइ ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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