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________________ ३४५ पद संग्रह (८) विरह राग - मल्हार घटा घहराइ । सखी री घोर प्रीतम विणि हु भई इकेली, नइणां नीर भराइ || १ स ० ॥ देखि संयोगिणि पिउ संग खेलत, सोल सिंगार बनाइ । मन की बात रही मनही मई, मनही मई अकुलाइ ॥ २स०|| धन वैयारी प्यारी प्रिउ की, रहत चरण लपटाइ | मोसी दुखणी अउर जगत में, कहत जिनहरख न काइ ॥ ३० ॥ (६) विरह राग - मोरठ जउ पाउं । अब मई नाथ कबड् पाइ धाड़ कइ जाइ लगुं तउ, उर परि हित सुं रहाउं ॥ १० ॥ चार बार मुख करूं विलोकन, छोरि कहां नहीं जाउं । " झालि रहुं प्रीतम के अंचरा, प्रीति सुरंग बनाउं ॥ २अ० || हुइ आधीन दीन सुं बोलुं, खिजमतिगार कहाउं । तम मन योवन सरवस दइहुं, जउ जिनहरख लहाउं ॥ २० ॥ (१०) विरह, प्रीति निषेध राग वेलाउल काहु सुं प्रीति न कीजड़, पल पल तन मन छीजइ । प्रतिकियां जीउ परवसि हुइहई, झुरि झुरि वृथा मरीजइ ॥ १ का० ॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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