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________________ श्री पार्श्वनाथजी की घग्घर नीसाणी ३०६. आसाढो भरि ऊनयो' सखी, वादल छायो सूर ।। पुहवी तन टाढो थयौ सखी, आतप नाठो दूरि रे। गड़ हड़ोआ मेघ गडुड़ रे, भीनी धरती भरपूर रे । नीला धरती अंकुर रे, वसुधा प्रगटाणो नूर रे ।१२। इ० वारहमास मांहि सांभरे सखी, अह निशि पास जिणंद । अश्वसेन कुल सेहरे सखी, वामा राणी नो नंद रे। सेवे जस पास फर्णिद रे, खिजमति करे चोसठ इंद रे। परतिख तू सुरतरु कंद रे, आले जिनहर्ष आणंद रे ॥१३॥इ० ॥ इति ॥ श्री पार्श्वनाथजी की घग्घर नीसाणी सुखसंपतिदायक सुर नर नायक, परतिख पासजिनंदा है। जाकी छवि कांति अनोपम ओपित, दीपत जाण दिणंदा है। मुख ज्योति झिगामिग झिग मिगमिग, पूरण पूनम चन्दा है। सब रूप सरूप बखाणहि भूपत, तूं ही त्रिभुवन नंदा है ॥१॥ करुणासागर लोक सवे मिल, जाका जस्स थुणंदा है। तेरी खिजमत्ति करे इकचित्त सं, तो सेवक धरणिंदा है। तें जलता आग निकाल्या नाग, किया बड़भाग सुरिंदा है। तो चरणां आय रखा लपटाय, कला अति केलि करंदा है॥२॥ इक दिन्न महारन्न वन पंचागनि, तापस ताप तपंदा है। १ उनम्यो २ ताढौ ३ घरहरिया ४ गरूर ५ तिलौ ६ सदा।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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