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________________ [२१] ३. सासू काठा हे गहूँ पीसावि, आपण जास्या मालवड, सोनारि भणइ | ( पृ० ५४) ४. झीणा मारू लाल रगावउ पीया चूनड़ी । ( पृ० ६० ) ५. थे तउ अगला रा खडिया आज्यो, रायजादा लाइज्यो राजि । ( पृ० १६१) ६. वाटका वटाऊ वीरा राजि, वीनती म्हारी कहीयो जाइ, अरे कहीयो जाइ, अब पके दोऊ नीवूअ पके, टपक टपक रस जाइ । ( पृ० १६१) ७ आठ टके ककणठ लीयउ री नणदी, थरकि रह्यउ मोरी वांह, 5 ककणउ मोल लीयउ | ( पृ० १६३) काव्य विवेचन का एक अंग भावसाम्य भी है। राजस्थानी कवियो की रचनाओं में इस दृष्टि से विचार करते समय कई पक्ष सामने आते है । कवि जिनहर्ष संस्कृत के विद्वान थे । अत यत्र तत्र उन्होंने संस्कृत - सुभाषितों का अपनी नीति वाणी में अनुवाद प्रस्तुत किया है ·-- खल सगत तजिये जसा, विद्या सोभत तोय | पन्नग मणि संयुक्त तें, क्यू नदी नखी नारी तथा नागणि खग जसराज 1 J नाई नरपति, निगुण नर, आठे करें अकाज ॥३२॥ दोहा वावनी ) दुर्जनः परिहर्तव्यो मणिना भूषित. सर्प न भयकर होय ॥१६॥ विद्ययालंकृतो सन् । किमसो न भयङ्कर ॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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