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________________ पार्श्वनाथ स्तवन २३१ सिद्ध' स्वरूप न रूप लखड़ कोई, सो साहिव संभारीयइ ॥ ३ ॥ सकल समृद्धि रिद्धि कर दाता, ताकउ जस विस्तारीयड़ । तउ छिनक मह ताकी सांनिधि, आवागमण निवारीय || ४ || अलवेसर परमेसर चित थई, दास कबहूं न वीसारीयइ । प्रभु जिनहरख हरख धरि मो परि, वामानंद वधारीयइ ||५|| पार्श्वनाथ स्तवन राग ॥ वसन्त ॥ श्रीपासकुमर खेलइ वसंत, सखीयन टोरी मिलि मिलि हसंत । काइ सखी बजावर मृदंग रंग, कांड़ ताल कंसाल बजावर चंग |१ चोवा चन्दन पाके तेल, नामड़ सिर ऊपरि माचड़ खेल । कनक सिंगी भरि कूंकूं नीर, परभावती छांटड़ पीउ शरीर |२| अपणी राणी सू आणी रीस, तेल सुगन्ध लेई नामइ सीस | लाल गुलाब सूं लेपइ गात, अंसुक फूले केस दिखात || ३ || गंगाजल में प्रभु कर केलि, राणी प्रभावती सखी सुमेलिं । जल क्रीड़ा त्रीड़ा करइ छोरि, भरिवाथ नाथ नांखड़ बहोरि | ४ | रामति करि आए वामानंद, सब कुं उपजाए मन आनंद । केसर मह सब गरकाव होइ, जिनहरख वामा लहइ हरख जोड़ || ५ | पार्श्वनाथ स्तवन 3 ढाल || मोरी दमरी अपूठी त्याज्योजी, मोरी द० एहनी || राग बिहागड़उ ॥ मोरी वीनती एक अवधारउ जी, मो० अन्तरजामी तूं अलवेसर । इतनी बात कहुँ प्रभु तोस, मोकूं भवदुख सायर तारउ जी । मो 1
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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