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________________ 3 १७४ जिनह - प्रन्थावली चंद्रप्रभ - स्वामि-स्तवन ढाल - फागनी श्री चन्द्रप्रभ स्वामी शिवगामि अवधारि, भव दुख वारक तारक सार करउ करतार | चंद्रवरण सुख करण धरण जगमड़ जस वास, सेवकनी मन संचित वंछित पूरउ स ॥१॥ तु सुखदायक नायक सुरनर सेवड़ पाय | समता सागर गुण आगर संपूरित काय | वदन सदन अमृत अमृत सू ओपम जास । देखी नयण चकोर मोर जिम खेलइ रास ||२॥ म चंद्र ती परि सोहड़ भाल विशाल | नयण कमल दल सुंदर निर्मल गुण मणि माल || तु साहित्र हुं सेवक सेव करूं कर जोडि । चरण ग्रह्या तुम चा अमचा भव बंधण छोडि || ३ || चउरासी लख पाटण ममीयर गमीयु काल | दुक्ख अनंत सह्या न कया जाये प्रतिपाल || मोटा ते सहु जागड़ ज्ञान प्रमाणड् चात | कहतां पार नलहीये कहीय जउ दिन राति ||४|| अरज करू छु एक विवेक हीया मइ आाणि । द्यउ सेवा ताहरी प्रभु माहरी एहिज वाणि || अवर न मागु किम ही जिम ही तिम ही आपि ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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