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________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली १५७ संयम लीधउ मनरंगस्यु सुर सुर पति हो कीधउ उच्छवसार रि। चउ मुष्टी लोच करी चल्या, प्रभुना नहीं हो पड़ि बंध लिबार॥३॥ निज करम खपावी घातिया, पाम्युपास्यु हो प्रभु केवल ग्यान ॥ देवे समव सरण रचना करी,वारइ परपद हो आवीं सुणिवा वाणि।४। तिहां संघ चतुर्विध थापीयउ, चउरासी हो थाप्या गणधार रि।। बहु वरस लगइ चारित्र पाली,जग जीवन हो पहुता मुगति मझारि।५ पहिलउ राजा पहिलउ यती, भिक्षा चरहो पहिलउ कहवाया ॥रि॥ पहिला पिणि कहीयइ केवली,वलीकहीं यइ हो पहिला जिन राय ।६ पांच नाम थया ए प्रभु तणा,सोहइ हो कंचण हो प्रभु वरण शरीर । जिन हरप कहइ करजोड़ि नइ,कीजइ मुझसु हो निज संपति सीर७) ॥ श्री आदिनाथ स्तवनम् ॥ ढाल-आधा ग्राम पधारउ पूजि, अमघर वहिरण वेला ।।एहनी।। आदि जिणोसर अाज निहाल्या,टाल्या पातक भवना । सुद्ध थयउ आतम हिवइ माहरउ, करिसु प्रसुनी स्तवना ॥१॥ मनडु भाहरउ मोह्यउ जि रिपम जिणोसरसामी । युगला धरम निवारण तारण,करम कठिण क्षयकारी । दरसण दीठी दउलति थायइ, जय जय जग उपगारी ॥२॥ करुणासागर गुण चयरागर नागर प्रणमे पाया । सुविधे सतर प्रकारी पूजा,करे सुरासुर राया ॥३॥ कंचन वरण सुकोमल काया,सूरति अधिक विराजइ । । 'अलप संसारी प्रभु सु राचइ, वहुल संसारी भाजइ ॥४म।।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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