SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४ आदिनाथ स्तवनानि समकित नाव्यउ साहिबा रे, पाम्यउ नही जिन धर्मो । उदय मोहनी कर्म नइ रे आया संसय भर्मो । संसय मर्म मिथ्यात पडीयउ, कुगुरु कुदेवई तिहां बहु- नड़ीयउ । करणी कधी जेह कृपाल, समकित पाखड़ जाणि पलाल ||१५|| तु तारइ त हुं तरुरे, नही तउ तरिवउ दूरो । वह विलंबण दीजीयइरे, भवसायर भरपूरो । भवसायर मां भमतु राखउ, नरकादिक गति मां मति नांखउ । दीन दयाल दुखी हुं दीणउ, तारउ तउस्युं जाइ तुम्हीणउ |१६| मोटांनी सेवा थकीरे मोटा थईय इनाहो । रूख प्रमाणइ वेलड़ीरे, पामड़ वृद्ध श्रगाहो । पामड़ वृद्धि जिसउ नर सेवइ, फूल तणी संगति तिल लेवह । तउ फूलेल सहुदय, मोटानी संगति थी तरीयइ | १७| जी। अपराधी मुझ सारिखउ रे, कोइ नहीं संसारो । दुख पीड्यु मीड़यु थकउ रे, अरज करू वार वारो । अरज करूं तुझ सरिखउ दाता, दीस अवर न कोई त्राता । बगसि बसि हिवड़ करूं' निहोरउ अपराधी हुं साहिब तोरउ | १८ | अपराधी तार्या घणा रे, भय भंजय भगवंतो । मुझ वेला यं विचारणा रे, कांई- करउ गुणवंतो । कंड करउ गुणवंत विचार, निगुणानी पिणि करिसउ सार । वयस्यु कहीयइ महाराज, निगुणा नी पिणि तुम नइ लाज | १६ | हिवड़ तुझ वाणीमुझ रुचीरे, जिम साकर सुं दूधो 1 י
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy