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________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली १५१ हांजी पूरव निज मन कोड है, 'आउ विमल गिरि। ___ करि नीकी जातड़ी हो, हांजी मन सुध वेकर जोड़ि हे, ___ कहे जिनहरख गिणु सफली घड़ी हे हां जी -॥८॥ ॥ इति श्री आदिनाथ स्तवनम् ॥ श्री आदिनाथ बृहत् स्तवनम् । ढाल- चंद्रायण नी सरसति सामिणि पाय नमु रे, ज्ञान तणी दातारो। श्री जिनवदन निवासिनी रे, व्यापि रही संसारो । व्यापि रही सगलइ संसार, समरंता अज्ञान निवारइ ।। गुणगाउंजिनवर मन भावइई,सरसति सामिणि तुझ पसायई।१ रिषभजी जी रे,मोरा साहिब तुसिरताज, पार उतारीयइ रे । ' मुझ आपउ अविचल राज, भव दुख वारीयइ रे अ.। तुं सिद्ध क्षेत्र विराजीयउ रे, मुगति पुरी नउ रायो। ताहरा गुण गावा भणी रे, मुझ मन उलट थायो । मुझ मन उलट थाइ सदाई,श्रीजिन भगति हीयइ मुझ आई। जामण मरण भीति हिवइ भागी,सिद्धि नायक सुजउ लयलागी २ गुण गाऊ किम ताहरा रे, हूं तउ मूढ गंवारो । घूहड़ वालकस्यु कहइ रे, केहवउ छइ दिनकारो । केहवउ जइ दिन करस्युजाणइ, ताहरा गुण कुण मूढ़ बखाणई । बुद्धि विना कहउ किणि परि कहिवइ,ताहरा गुण नउपार न लहीयइ३ जे नर अंजल सूमिणइ रे, चरम सायर नउ नीरो ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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