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उपदेश छत्तीसी
करि कै परिख्या जिनहरख धर्म कीजै, कसिकै कसौटी जैसे कंचन लीजिये ॥३५॥
अथ ग्रंथ समाप्त कयन सवझ्या ३१ भई उपदेश की छत्तीसी परि पूर्ण चतुर है जे याको मध्य रस पीजीयै ।
मेरी है अलपमति तो भी मैं कीयों कवित्त,
कविताह सौ हौ जिन ग्रंथ मान लीजिये । सरस है है बखाण जोड अवसर जाण, दोइ तीन याके भया सवइया कहीजीयै। ..
कहै जिनहरख संवत गुण ससि पराय. कीनी है जु सुणत स्यावास मोकू दीजिये ।३६। ॥ इति श्री उपदेश छत्तीसी ।
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