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________________ विशेप बात यह है कि जैन साहित्य साधक एकमात्र अपने साम्प्रदायिक घेरे के बन्धन में ही नहीं रहे और उन्होंने अनेक शान-शासाओं को अभिवृद्धि की ओर ध्यान लगाया। उन्होने अपने ग्रन्यागारों में सभी उपयोगी विषयो की रचनाओं को सगृहीत एव सुरक्षित किया फल यह हुआ कि देश के अनेक विकट परिस्थितियों में मे गुजरने पर भी जैनभण्डारों में भारतीय ज्ञान-साधना का अमृत-फल किसी अग में सुरक्षित रह सका। इस प्रकार बहुत अधिक साहित्य-सामनी नष्ट होने से बचा ली गई। जैन ज्ञान-भण्डारों की यह सेवा सदैव अविस्मरणीय रहेगी। राजस्थानी साहित्य को तो जैन-विद्वानो का दिगेप योगदान मिला है। प्राचीन राजस्थानी-साहित्य प्राय. जैन-विद्वानो का ही सुरक्षित प्राप्त हो सका है और यह सामग्री बडी ही महत्वपूर्ण तथा विस्तृत है। जहा राजस्थानी साहित्य अपने वीर कवियों के सिंहनाद के लिए प्रसिद्ध है वहा इसके भक्तों एव सन्तों की अमृत-वाणी भी कम महत्वपूर्ण नही है। अभी तक अन्य सम्प्रदायों के समान जैन भक्ति-साहित्य का अध्ययन समुचित रूप से नहीं हो पाया है, अन्यथा राजस्थानी साहित्य और भी अधिक गौरव की वस्तु माना जाता। हर्प का विषय है कि कुछ समय से इस दिशा में भी विद्वानो का ध्यान आकर्पित हुआ है और कई अच्छे सग्नह-ग्रन्य प्रकाशित हुए हैं। ये ग्रन्थ जहाँ साहित्यिक अध्ययन को आगे वढाते है, वहाँ भाषा शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से भी परमोपयोगी है। जसराज राजस्थानी जनता के कवि हैं। किसी कवि के लिए जनजीवन में घुल मिल जाना परम सौभाग्य का सूचक है। इस से कविवाणी विस्तार पाकर लोकवाणी का रूप धारण कर लेती है। अनेक लोगों को
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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