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________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली जम वारा लगि तुटइ नहीं. जिम पंकज नइ आदीत ॥चं.॥ ५॥ थेतउ साहिव करुणा रस भर्या, लहि अवसर करज्यो सार । जिनहरष हीयइ धरि भेटि सु, धन दिन धनधन अवतार ।। सुबाहु-जिन-स्तवन [ढाल -हमीरीया नी अथवा मालीना गीतरी।] वाल्हेसर संभालीयइ, विरुद गरीव निवाज सुबाहु । करुणा निधि करुणा करी, सारउ वंछित काज । सुवाहु.।१। दुखीयउ दीन दया मणउ, राज तणो हुँ दास ।सु.। दीनदयाल कृपालु तु, राखि सनेहा पास ।सु.। २ ।वा.। 'देवल देवल देवता, फिर फिर मुक्या जोइ ।सु.॥ तुडि आवइजे ताहरी, तिसउ न दीसइ कोइ ।सु.।।३।वा. 'भवसायर पडता थकां, जउ मुझ आपउ बाह ||सु.॥ तउ तरि पाऊतो कन्हइ, रहुं चरणां री छाह सु.।।४। १ ज्ञानी ध्यानी मइ घणा । २ ताहरी समवडि जे करइ, तेहवउ न दीठउ कोइ । ३ जउ एक सुर मेल्हउ इहा तास विलबी बाह । ४ तुम्ह ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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