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________________ छ) चारी पदों में भी करनी चाहिए। अर्थात् लोक के सब अरहंतों को नमस्कार हो, लोक के सब सिद्धी को नमस्कार हो. इसी तरह पाचां पदों का अर्थ जानो । २. दूसरा प्रसग है- भगवान पार्श्व के पाच महाव्रत । श्वेताम्बर आगमों में ऐसा कथन है कि भगवान पार्श्वनाथ ने चार ही महाव्रत कहे थेमैथुनम्याग अलग नही था उसका ग्रहण परिग्रह त्याग में किया जाना था क्योंकि स्त्री को ग्रहण किए बिना भांगा नही जा मबना । पीछे भगवान महावीर में अपने तीर्थ मे पाच महाव्रतां का उपदेश किया, क्योंकि पार्श्वनाथ के शिष्यां ने उसका दुरुपयोग किया था। इसी का परीक्षण और विवेचन पडित जी ने अपने में किया है जो विशेष रूप से पहने लायक है । 1 दिगम्बर परम्परा के मुलाचार में भी यह कथन मिलता है कि बाईम तीर्थकर सामायिक, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म मापराय और यथाख्यान चारित्र का ही उपदेश करते है, क्योंकि उनके समय के माधु मरल और विद्वान् होने मे मयम में दूपण नही लगाते । किन्तु प्रथम अन्तिम तीर्थकर पाचवे छेदीपस्थापना मयम का भी उपदेश देते है । किन्तु चार और पाच महाव्रतां का कथन दिगम्बर परपरा में नहीं मिलता। यद्यपि चार और पाच मयमों की तरह चार और पाच महाव्रता के उपदेश वा अन्तर मभव है और इसका समर्थन रोद्रध्यान के नार भंदा में हाना है । रौद्र के चार भेद हिमानन्दी, असत्यानन्दी, नौयांनन्दी और विषय मरक्षण आनन्दी है । विषय मरक्षण मं मैथुन और परिग्रह दाना गाभिन है ऐसी ही स्थिति चातुर्याम की हो सकती है। वे. स्वानाग सूत्र (२६६) की टीका में लिखा है मध्य' के बार्टम तीर्थकर तथा विद नीवार नानुर्गाम धर्म का तथा प्रथम तथा अन्तिम नीर्थकर पचयाम भ्रमं नावचन शिष्यों की अपेक्षा में करने है । वास्तव में तो दोनो ही पंच-पंचयाम धर्म का हो प्रतिपादन करते है। विन्तु प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ ने गाध नम से ऋजु-जद और वत्र जड होते है। अन परिग्रह छोडने वा उपदेश देन पर परिग्रह त्याग में मंथन त्याग भी गर्भित है यह समझने में और गमत कर उगना त्याग करने में असमर्थ होते है। किन्तु शेष नीवरी के तीर्थ व माधु कज और प्राज्ञ होने के कारण तुरन्त समझ लेते है कि परिग्रह में मंथन भी गनि क्यारि विना ग्रहण किये स्त्री को नही भोगा जा सकता ।' नीमरा प्रमग पर्यपण और दशलक्षण पर्व । भगवती आराधना गाथा ४२३ मे माथ वे दम बन्ग बतलाए है। यही गाथा श्वेताम्बर आगमों में भी मिलती है। इनमें अनिम वन्य गज्जांमत्रण है टोकावर अपराजिनमूरि ने
SR No.010380
Book TitleJina Shasan ke Kuch Vicharniya Prasang
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadamchand Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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