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________________ जिन-बालन के कुछ विचारपोष प्रसंग -एमो संत-कम्मपाहर उवामों-धव० प्र० पु० पृ. २१७ -'माग्यि कहियाण मतकम्पकमायपाहुडाण | वही, पृ० २२१ सत्त महाधवनति के अन्तर्गत ग्रन्थ रचना के आदि में 'संतकम्म पंजिका है। इमक अवतरण में अभी 'मत' शब्द भी मेरे देखने में आया है 'पुणो नहिनी ममछाग्माणियोगट्टागणि सतकम्मे मव्वाणि पविदाणि।'यह संतकम्ममिका नाडपत्रीय महाधवन की प्रति के २ पृष्ठ पर पूर्ण हुई है और पटना डागम पुम्नक ३ में इमका चित्र भी दिया गया है। (देखेंप्रम्नावना, पटनाडागम पुग्नक : पृ० १ व ७) अन इम उद्धरण में इस बान में तनिक भी मन्देह नहीं रहना कि प्रमग मे 'संत' या सस गन्द सत्त्व-आत्मा के अयं में ही है। और मग का अयं मध्य है जो 'आत्मा को आन्मा के मध्य अयं ध्वनिन करता हुआ आत्मा में आत्मा का एकत्वपन मलका कर आत्मा को अन्य पदार्थों में 'अमयुक्त मिट करता है। एक बात और । आचार्य कुन्दकुन्द ने नियममार को गाथा २६ में 'अनमजन' पद का और ममयमार की गाथा १५ में 'मतमज्म' या मतमा' का प्रयोग किया है और नियममार को उक्त गाथा की मम्कृत छाया में 'अनमज्म' का अर्थ 'आत्म-मध्य' किया है।' इमी प्रकार 'मतमन्न' या 'मनमजम' की मम्कृत छाया भी मन्मध्य या मन्वमध्य है यह सिद्ध होता है। लेखक-विनय जैनी हिमक होता है. ममताभाव में और विगंधी में अपना । आचार्यों के प्रमाणों में पूर्ण, प्रस्नुन मकनन भी जिनवाणी के स्वरूप को मुरक्षित रखने की दृष्टि से लिखा गया है-'परिक्तिय संपत्तब।'
SR No.010380
Book TitleJina Shasan ke Kuch Vicharniya Prasang
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadamchand Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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