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________________ जिन-मासन के कुछ विचारणीय प्रसंग - - लिगपाहर - २,१३,१४ - भीमपाइ - २१ नियममार१८९,५२,632.०.१२७ ५५,५८,६८ ५६,५७ १६:१९ १६.६८१६६,१६८ - १११,११४ १६१.१६० ५,०० १५० १७१,१७५ हमी प्रकार अन्य बहन से गद है जो विभिन्न सपा में दिन आगमी में प्रयुक किये गए है । जम-- 'गड, गदि । होट, होदि, हदि । गाओ, णादो। भूयत्यो, भूदत्यो। मुगवली, मुदकंबली। गायब्बो, णादब्यो । पुग्गन, पोग्गल । लोए, लोगे । आदि : उक्त प्रयोगों में 'द' का लोप और अलोप तथा लोप के स्थान में 'य' भी दिखाई देता है। म्मग्ण हे केवल गौरमनी को हो 'द' का अलोप मान्य हैदूमगे प्राकृता में 'कग च जन द य ब इन व्यन्जनो का विकल्पमलोप होने कारण दोनों ही कप चलते है। जैन गौरमनी में अवश्य ही महाराष्ट्री, अर्धमागधी और गौग्मेनी के मिले-जुले पो का प्रयोग होता है। पुग्गल और पोंग्गल प्रवचनमार आदि में उक्त दोनों रूप मिलन है। जैसे गापा–२.७६, २.६३ और गापा २-७८, २-६३ । पिशल व्याकरण में उल्लन है - "जन भोग्मनी में पुग्गल रूप भी मिलता है"- पंग १२८ । इसी पंग में पिशल ने लिखा है "सयुक्त व्यजनों से पहल 'उ' को 'ओ' हो जाता है....."| मारकण्डेय के पृष्ठ ६६ के अनुमार सौरमनी में यह नियम केवल 'मुक्ता' और 'पुष्कर' में लागू होना है। इस तथ्य को पुष्टि मब पब करने है।"-पैग १२०, दूमरी बात यह भी है कि श्रोत्-सयोग' वाला (उको बो करने का) नियम मभी जगह इष्ट होता तो 'मुक्केब' (गावा ५) पुषकाल हा (नामा २१) पुपति, दुल्स (गापा ५ समकतार) आदि में भी उकार को बोकार होना पाहिए। पर ऐसा न करके दोनो ही स्पो को स्वीकार किया है-'पवित् प्रवृत्ति परिप्रवृत्तिः ।
SR No.010380
Book TitleJina Shasan ke Kuch Vicharniya Prasang
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadamchand Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages67
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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