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________________ (८५) या० ॥ टेक ।। खाई कोट ऊंचा दरवाजा, तोप सुभटका भैर रे । छिनमै खोसि मुदी (1) लै तब ही, रंक फिरै घर, घर रे ॥ या० ॥ तन सुंदर रूपी जोवनजुत, लाख सुभटका बल रे । सीत-जुरी जब आन सतावै, तव कांपै थर थर रे ।। या० ॥२॥ जैसा उदय तैसा फल पावै, जाननहार तू नर रे। मनमें राग दोष मति धारै, जनम मरनते डर रे॥ या० ॥३॥ कही वात सरधा कर भाई !, अपने परतख लख रे । शुद्ध सुभाव आपना वुधजन, मिथ्याभ्रम परिहर रे ॥ या० ॥४॥ (२०५) येती तो विचारौ जगमें पार्वनां है, हे जिया ॥ येती. ।। टेक॥ पाई नरदेह मति भूलै म्हारा हे जिया ॥ येती०॥ १॥ लख चौरासीकै माहिं तू फिरैलो वावरा । जनम मरण दुख होय, म्हारा हे जिया ॥ येती० ॥ २ ॥ तेरा साहिब तुझहीमाहिं विराजै जीयरा। बुधजन क्यों रह्या भूल, म्हारा हे जिया ॥ येती० ॥३॥ (२०६) अव तौ या जोग नाही रे, अरे हो अजान ।। अव०॥ टेक । सिरपर काल फिरत नहिं दीस, चेत वुढ़ापा आईरे ।। अव०॥ १॥ कोडि मुहर दीयां नहि जीवौ, हेलो पाड़ि सुनाई रे ॥ अव० ॥२॥ धरम विना नरभव तू खोवत, ज्यों आंधे निधि पाई रे ॥ अव० ॥ ३ ॥ १ समूह । २ शीत-ज्वर । ३५ प।४ पाहुंना-महमान। ५चिल्लाकरके।
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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