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________________ (७५) (१८९) राग-ईमन कल्यान चौतालो। तू पहिचान रे मन, निज स्वरूप ज्ञायक अनूप परमभूप गुनका निधान ।। टेक ॥ सुरलोक नरलोक नागलोक, लोकालोक विलोक सुजान ॥ तू पहिचान०॥१॥ विधिवश हो भरमत अनादि जग, धारत जन्म मरन दुख जान॥सुधनय सुध हेशिवमें विराजै, जैसौ वुधजन करत वखान ॥ तू पहिचान० ॥२॥ (१८०) राग-काफी, ताल-दीपचंदी!, चेतन तोसौं आज होरी खेलौंगी रे ॥ चेतन० ॥ टेक ॥ अनंत दिवस क्यो अनतहि डोल्यौ, ताको वदला अव ल्यौंगी रे ॥ चेतन० ॥१॥ जो ते करी सो भंडुवा गवाऊं, संजमतें कर वाँधोगी रे । त्रास परीपह लगैगी तेरै, तब सुधताई आवेगी रे ॥ चेतन० ॥ २ ॥ जिन तोकौं दुख दै भरमायौं, ता दुरमतिको भगावौंगी रे । खोटे भेष धरे लंगर तें, अब शुभ भप बना द्यौगी रे ॥ चेतन० ॥२॥ समकित दरस गुलाल लगाऊंज्ञान सुधारस छिरकोंगी रे। चारित चोवा चरचौं सब तन, दया मिठाई खवावौंगी रे चेतन० ॥४॥वुधजन यौ तन सफल कराँगी, विधि-विपदा सब चूरोगी रे । हिल मिल रहुँ विछुरौं नहिं कवहूं, मनकी आशा पूराँगी रे ॥ चेतन० ॥ ५॥ . - १ शुद्ध निश्श्यनयने । २ अन्यस्वानोंमें।
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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