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________________ ( ७३ ) ॥ टेक ।। दुष्ट जीव पर प्रान सतावे, सो ही नरकनि माय, जाय विपता भरै ।। अजी० ॥१॥ या विन जप तप सव ही झूठे, यों भाप जिनराज, सुजन मनमैं धरै ।। अजी० ॥२॥जो सुख दे सो तौ सुख पावै, दुख पाव जो जीव, परको दुःख करें ।। अजी० ॥३॥ जो त्रस थावर रक्षा करि है, तिनके मन वच काय, पॉयवुधजन परै॥अजी० ॥४॥ (१७५) आनंद भयौ निरखत मुख जिनचंद ॥ आनंद०॥टेका सत्र आताप गयो तखिन ही, उपज्यौ हरप अमंद आनंद० ॥१॥भूल थकी रागादिक कीन, तब बांधे क्रमवंद । इनकी कृपाते अव मिटिले हैं, विपताके सव फंद ॥आनंद० ॥२॥ केवल स्वेत सुभग सुछतापर, वारों कोटिक चंद । चरन कमल वुधजन उर भीतर, ध्यावें गिव सुखकद ।। आनंद० ॥३॥ (१७६) राग कालिंगड़ा । जो मोहि मुनिकों मिलावै, ताकी वलिहारी ॥ जो० ॥ टेक | मिथ्या व्याधि मिटत नहिं उन विन, वे निज अमृत पावै ॥ ताकी०॥१॥इंद नरिंदफनिंदतीनों मिलि, उन चरना सिर नावै। सव परिहारी परउपगारी, हित उपदेश सुनावै ॥ ताकी० ॥२॥ तजि सव विकलप निज १ कमवध । २ पिलाये।
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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