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________________ शिवदाई | आज० ॥२॥ वड़े भाग वुधजनके आये, सहजै सव निधि पाई । सव पुरके घर घरमैं मंगल, वाजे बजत सवाई । आज० ॥३॥ (१६३) राग-अलहिया विलावल। . कृपा तिहारी विन जिन सइयाँ, कैसे उधरैगो विषयसुख लइयां। कृपा० ॥ टेक ।। जो कछु भोजन हरत समयछिन, तन यह विलखि बने मुरझैया । कृपा० ॥१॥पहलें याकी वान सुधारो, दिखलावौ तत्त्वाथें गुसइयां । तब ये जानै उर सरधानै, तजै कुबुद्धि सुवुद्धि गहइयां ॥ कृपा० ॥ २॥ बहुत पातकी भवदधि तारे, पतितउधारक सांचे सइयां । वुधजन दास परयौ भवदधिमैं, वेगि तारिये गहकर बहियां ॥ कृपा० ॥३॥ (१६४) • राग-अड़ाणूं। चेतन मो-मातौ भव बनमैं, गति गति भरमत डोले ॥ चेतन० ॥ टेक ।। अनत ज्ञान दरसन सुख वीरज, ढांपि दिये रंग होलै ॥ चेतन०॥ १॥ अलप भोगमैं मगन होय है, हित अनहित नहिं तोले। मनमैं और करत तन ओरै, और हि मुखतें बोलै ॥ चेतन० ॥२॥ गुरु उपदे'श धार ले भाई, तजि विकलप झकझोलै । वैरागी निज लौं लागी, सो बुधजन शिवको लै ॥ चेतन० ॥३॥ (१६५) राग-सोरठ। उमाहौ म्हानै लागि गयौ छ, मुक्ति मिलनरो ॥ उमा
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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