SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६३ ) ॥ मनुवो० ॥ टेक ॥ कोटि वात पिय क्यों कहौ, हूं मानूं नहिं एक । वोधमती गुरु ना नमूं, याही म्हांरै टेक ॥ मनुवो० | ॥ १ ॥ जन्म मृत्यु सुख दुख विपति, बैरी मीत समान ।राग दोष परिग्रहरहित, वे गुरु मेरे जान ॥ मनुवो० ॥२॥ सुर शिवदायक जैन गुरु, जिनकै दया प्रधान । हिंसक भोगी पातकी, कुगतिदाइ गुरु आन ॥ मनुवो० ॥ ३ ॥ खोटी कीनी पीव तुम, मुनिके गल अहि डारि । थे तो नरकां जायस्यो, वे नहिं काढ़े डारि ॥ मनुवो० ॥ ४ ॥ श्रेणिक सँगतै चलणा, खायक समकित धार । आप सातमा नरक हरि, पहुॅचे प्रथममॅझार ॥ मनुवो० ॥ ५ ॥ तीर्थकर पद धारसी, आवत कालमॅझार | वुधजन पद वंदन करै, मेरी विपता टार ॥ मनुवो० ॥ ६ ॥ ( १५१ ) राग - सोरठ। राग दोष हंकार त्यागकरि शुद्ध भया जी थे तौ ॥ राग० ॥ टेक ॥ तारन तरन सुविरद रावरो, मेरी ओर निहार, ॥ राग० ॥ १ ॥ द्रव गुन परजय तीनकालका, लखि लीना' विस्तार । धुनि सुनि मुनिवर गनधर कीनै, आगम भवि - हितकार ॥ राग० ॥ २ ॥ जा मति करिकै जा विधि करिकै, उतर गये हौ पार । सो ही वुधजनकौं वुधि दीजे, कीजे, यौ उपगार ॥ राग० ॥ ३ ॥ ( १५२ ) अदभुत हरष भयौ यौं मनमैं, जिन साहिव दीठे नैननमैं ॥ अदभुत० ॥ टेक ॥ गुन अनन्त मति निपट अलप
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy