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________________ (५८) रिया । बुधजनके उर भई प्रतीत, अव भवसागर तरिया ॥ आयो० ॥४॥ (१३८) ऐसे प्रभुके गुनन कोउ कैसे कहै ॥ ऐसे० ॥ टेक ॥ दरस ज्ञान सुख वीर्ज अनन्ता, और अनंत गुन जामै रहै ॥ ऐसे० ॥१॥ तीन काल परजाय द्रव्य गुन, एक समय जाको ज्ञान गहै । ऐसे० ॥२॥ जो निज शक्ति गुपत छी अनादी, सो सव प्रगट अव लहलहै । ऐसे० ॥३॥ नंतानंत काललौंजाको, सांत सुथिर उपयोग बहै। ऐसे०॥४॥ मन वच तनतें बंदत वुधजन, ऐसे गुननकौं आप चहै , ॥ ऐसे० ॥५॥ . (१३९) राग-ठुमरी। अब हम निश्चय जान्या हो जिन तुम सरन सहाई। जनम मरनका डर है जगमैं, रोग सोग दुखदाई ॥ अव० ॥ टेक ॥ तुमकौं सेवत समता आई, विपता तुरत भगाई ॥ अव०॥१॥ अनंत कालमैं जीव अनन्ते, तुमतै शिवगति पाई । अबहूं भविजन तुमतें तिरहैं, ये आगममैं गाई । अब० ॥२॥ शत्रु मित्र तेरे कोऊ नहिं, सुख साता यौं · आई। अपना भला चहत जे बुधजन, तोकौं सेवें भाई ॥ अब० ॥३॥ (१४०) {." सुन करि वानी जिनवरकी म्हारै, हरप हि न समाय ॥ सुन० ॥ टेक ॥ अनादि कालकी तपन बुझाई, निज
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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