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________________ (५६) (१३४) परमजननी घरमकथनी, भवार्णवपारको तरनी ।। परम०॥ टंक ॥ अनच्छरि घोष आपतकी, अछरजुत गनधरौं बरनी ॥ परम०॥ १॥ 'निखेपी-नयनुजोगनितें, भविनकों तत्त्व अनुसरनी । विथरनी शुद्ध दरसनकी, मियातम मोहकी हरनी ॥ परम० ॥२॥ मुकति मंदिरके चढ्नकों, मुगमसी सरल नीसरनी । अँधेरे कूपमै परतां, जगतउद्धारकी करनी ॥ परम०॥३॥ तृपाक ताप मेटनकों, करत अम्रत वचन झरनी । कथंचित्वाद आदरनी, अवर एकान्त परिहरनी ॥ परम० ॥४॥ तेरा अनुभौ . करत मोका, बनत आनंद उर भरनी । फियो संसार दुखिया हूं,गही अव आनि तुम सरनी ॥५॥ अरज बुधजनकी मुन जननी, हरी मेरी जनम मरनी । नमूं कर जोरि मन वचत, लगाके सीसकों धरनी ॥ परम०॥६॥ (१३) राग-विलावल। मेरे आनंद करनकों, तुम ही प्रभु पूरा ॥ मेरे० ॥ टेका और सबै जगमैं लखे, दूपनजुत कूरा ॥ मेरे० ॥१॥ मोह शत्रुके हरनकों, तुम ही हो सूरा । मोकों मोह दवात है, कर याकौं दूरा ।। मेरे० ॥२॥ केवलज्ञान छिपात है, ताको करि चरा।ज्यों प्रगटें मोमाहिके, नाना गुन भूरा । मेर०॥३॥ वुधजन विनती करत है, जिन १ आम-मचे टवक्री। २ निक्षेप नयके अनुयोगसे । ३ विन्तारनी । ४ न. 'नी! ५ म्याद्वाद।
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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