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________________ (४८) सतौ जियरौ जागौ । लब० ॥१॥ निज संपति निजहीमैं पाई, तव निज अनुभव लागौ । वुधजन हरपत आनंद वरषत, अमृत झरमैं पागौ ॥ लखें० ॥२॥ (११९) थे म्हारे मन भायाजी चंद जिनंदा, बहुत दिनामैं पाया छौ जी ॥ ३० ॥ टेक ॥ सव आताप गया ततखिन ही, उपज्या हरष अमंदा ॥थे० ॥१॥ जे मिलिया तिन ही दुख भरिया, भई हमारी निंदा । तुम निरखत ही भरम गुमाया, पाया सुखका कंदा ॥ थे०॥२॥ गुन अनन्त मुखतें किम गाऊं, हारे फनिंद मुनिंदा । भक्ति तिहारी अति हितकारी, जॉचत वुधजन वंदा । थे०॥ ३ ॥ (१२०) मैं ऐसा देहस बनाऊं, ताकै तीन रतन मुक्ता लगाऊं ॥ मैं० ॥ टेक ॥ निज प्रदेसकी भीत रचाऊं, समता कुली धुलाऊंचिदानंदकी मूरति थापूलखिलखि आनंद पाऊं मैं ॥ १॥ कर्म किजोड़ा तुरत वुहारूं, चादर दया विछाऊं । क्षमा द्रव्यसौं पूजा करिकै, अजपा गान गवाऊं ॥ मैं० ॥॥२॥ अनहद वाजे वजे अनौखे, और कडू नहिं चाऊं । वुधजन यामैं वसौ निरंतर, याही वर मैं पाऊं। मैं ॥३॥ (१२१) • राग-गजल रेखता कालिंगड़ो। नरदेहीको धरी तो कछू धर्म भी करो । विषयोंके संग राचि क्यों, नाहक नरक परो । नर० ॥ टेक ॥ चौरासि
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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