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________________ ( ४६ ) ( ११३). राग - कालिंगड़ो | अजी हो जीवा जी थां श्रीगुरु कहै छै, सीख मानौं जी ॥ अजी० ॥ टेक ॥ विन मतलवकी थे मति मानौं; मतलवकी उर आनौं जी ॥ अजी ० ॥ १ ॥ राग दोषकी परनति त्यागौ, निज सुभाव थिर ठानौं जी । अलख अभेद रु नित्य निरंजन, थे बुधजन पहिचानौं जी ॥ अजी ० ॥ २ ॥ D (998)0 हूं कब देखूं वे मुनिराई हो || हूं० ॥ टेक ॥ तिल तुष मान न परिग्रह जिनकें, परमातम ल्यौं लाई हो ॥ हूं० ॥ १ ॥ निज स्वारथके सव ही बांधव, वे परमारथभाई हो । . सब विधि लायक शिवमगदायक, तारन तरन सदाई हो ॥ हूं० ॥ २ ॥ ( ११५) आयौ जी प्रभु थांपै, करमारौ पीड़यौ आयौ | आयौ ० ॥ टेक ॥ जे देखे तेई करमनि वश, तुम ही करम नसायौ ॥ आयौ ॥ १ ॥ सहज स्वभाव नीर शीतलको, अगनि कपाय तपायौ । सहे कुलाहल अनतकालमैं, नरक निगोद डुलायौ ॥ आयौ० ॥ २ ॥ तुम मुखचंद निहारत ही अव, सब आताप मिटायौ । बुधजन हरष भयौ उर ऐसे, रतन चिन्तामनि पायौ ॥ आयौ ० ॥ ३ ॥ ( ११६ ) राग- परज ॥ महाराज, थानें सारी लाज हमारी, छत्रत्रयधारी ॥ "
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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